क्या राज्य सरकारें केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों को अपने राज्य में लागू होने से रोक सकती हैं?

भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहाँ संविधान सर्वोपरि है। केंद्र और राज्य सरकारों की शक्तियाँ इसी संविधान के अनुसार विभाजित हैं। संसद द्वारा बनाए गए कानून जब पूरे देश पर लागू होते हैं, तब कुछ राज्य सरकारों द्वारा यह कहना कि “हम इस कानून को अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगे,” केवल एक राजनीतिक वक्तव्य भर है या वाकई इसकी कोई संवैधानिक वैधता है? यह प्रश्न आज के भारत में अत्यंत प्रासंगिक हो गया है।

संविधान में केंद्र और राज्य की शक्तियाँ: भारत का संविधान विषयों को तीन सूचियों में विभाजित करता है:

  1. संघ सूची (Union List): जिन विषयों पर केवल संसद कानून बना सकती है — जैसे रक्षा, विदेशी मामले, नागरिकता आदि।
  2. राज्य सूची (State List): जिन पर केवल राज्य विधानसभाएँ कानून बना सकती हैं — जैसे पुलिस, लोक स्वास्थ्य, भूमि आदि।
  3. समवर्ती सूची (Concurrent List): जहाँ दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं — जैसे शिक्षा, पर्यावरण, आपराधिक कानून आदि।

यदि किसी विषय पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना दें और उनमें टकराव हो, तो अनुच्छेद 254 के अनुसार केंद्र का कानून प्रभावी रहेगा।

अनुच्छेद 245, 256 और 365 की भूमिका

अनुच्छेद 245: संसद को पूरे देश के लिए कानून बनाने का अधिकार देता है।

अनुच्छेद 256: राज्यों को केंद्र के कानूनों को लागू करने हेतु निर्देशित करता है।

अनुच्छेद 365: यदि कोई राज्य सरकार संविधान के अनुसार केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन नहीं करती, तो राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।

इसका अर्थ यह है कि कोई भी राज्य सरकार यह नहीं कह सकती कि वह केंद्र का कानून लागू नहीं करेगी।

राजनीतिक विरोध और तुष्टिकरण की राजनीति: हाल के वर्षों में देखा गया है कि जब भी कोई राष्ट्रीय हित का कानून बनता है — जैसे:

CAA (नागरिकता संशोधन अधिनियम)

तीन तलाक़ कानून

UAPA (आतंकवाद विरोधी कानून)

NRC (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर)

वक़्फ़ अधिनियम (Waqf Act)

तो कुछ राज्य सरकारें विशेष रूप से विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य, घोषणा करते हैं कि वे इन कानूनों को लागू नहीं करेंगे।

उदाहरण:

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने CAA को लागू न करने की घोषणा की।

केरल ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर CAA का विरोध किया।

पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी इस तरह के बयान दिए गए।

वक़्फ़ बोर्ड द्वारा मंदिर भूमि पर दावे के मामलों में राज्य सरकारें मौन रहती हैं।

जबकि इन सभी बयानों की संवैधानिक कोई वैधता नहीं होती।

प्रशासनिक बाधाएं

राज्य सरकारें इन कानूनों को पूरी तरह रोक नहीं सकतीं, लेकिन वे प्रशासनिक स्तर पर बाधाएँ उत्पन्न कर सकती हैं:

अधिसूचना (Notification) में देरी।

संबंधित अधिकारियों को मौखिक निर्देश देकर प्रक्रिया को धीमा करना।

ज़मीनी स्तर पर फाइलें लटकाना।

जनता के बीच भ्रम फैलाना कि यह कानून उनके खिलाफ है।

ये सारे हथकंडे वास्तव में कानून के कार्यान्वयन में बाधा डालने की राजनीति है, न कि वैध संवैधानिक कार्यवाही।

न्यायपालिका की दृष्टि

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार स्पष्ट किया है कि संसद द्वारा पारित कोई भी कानून “Law of the Land” होता है, और वह सभी राज्यों में समान रूप से लागू होता है।

यदि कोई राज्य सरकार कानून को लागू करने में बाधा डाले, तो:

मामला न्यायपालिका में जा सकता है।

राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की जा सकती है।

संबंधित अधिकारियों पर अवमानना का मुकदमा चल सकता है।

लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध

लोकतंत्र में केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कोई भी सरकार संविधान से ऊपर नहीं है। किसी एक पार्टी या राज्य का यह कहना कि वे कानून को लागू नहीं करेंगे, संवैधानिक व्यवस्था की अनदेखी है और यह एक खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकती है, जहाँ हर सरकार अपने हिसाब से संविधान की व्याख्या करने लगे।

राज्य सरकारें न तो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को रोक सकती हैं, न ही उन्हें असंवैधानिक रूप से खारिज कर सकती हैं। यह केवल राजनीतिक बयानबाज़ी है, जिसका उद्देश्य वोटबैंक को संतुष्ट करना है, न कि संविधान की रक्षा करना।

एक जागरूक नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है कि हम इन भ्रमपूर्ण बयानों को पहचानें, संविधान की मूल भावना को समझें, और कानून के शासन (Rule of Law) को सर्वोपरि मानें।

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